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Wednesday, 21 April 2021

अमीर खुसरो

 •जीवनकाल:-1255-1324 ईस्वी 

•मूलनाम:-अबुल हसन

•उपनाम:- तुर्क ए अल्लाह 

जन्मस्थल:-ग्राम पटियाली जिला एटा (उत्तरप्रदेश)। भोलानाथ तिवारी ने खुसरो का जन्म दिल्ली में होना बताया है।

•गुरु:-सूफ़ी संत निजामुद्दीन औलिया 

•आश्रयदाता:-गयासुद्दीन बलबन, जलालुद्दीन खिलजी, अलाउद्दीन खिलजी, कुतुबद्दीन एवं मुबारकशाह।

•उपाधियां:-

•हिन्दुस्तान का तोता- स्वयं को अपनी रचना 'नुहसिपहर' में कहा। नवीन शोध के अनुसार खुसरो को सर्वप्रथम 'तूती ए हिन्द' ईरान के फारसी कवि 'हाफिज शीराजी' ने कहा। इस संदर्भ में खुसरो लिखते हैं कि-

 'च मन तूतिए- हिन्दुम, अर रास्त पुर्सी।

 जे मन हिन्दुई पुर्स, ता नाज गोयम।।'

अर्थात् मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ, अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछों जिसमें कि मैं कुछ अद्भुत बातें बता सकूं।

•खुसरो सुखन- 12 वर्ष की आयु में ख्वाजा इजुद्दीन द्वारा प्रदत्त उपाधि।

•अमीर- जलालुद्दीन खिलजी 

•राजकवि- अलाउद्दीन खिलजी 

•बुलबुले हजार दास्तान- बुगरा खान

•कवियों का राजकुमार- डाॅ. ईश्वरी प्रसाद 

*Note:- 'अबुल हसन' को ख्वाजा इजुद्दीन द्वारा प्रदत्त उपाधि 'खुसरो सुखन' एवं जलालुद्दीन खिलजी द्वारा प्रदत्त उपाधि 'अमीर' को मिलाकर अमीर खुसरो कहा जाता है।

•रचनाएँ:- खालिकबरी, पहेलियां, मुकरिया, गज़ल, दो सुखने, नुहसिपहर एवं हालात ए कन्हैया आदि।

• 'खालिकबरी' तुर्की, फारसी, अरबी एवं हिन्दी के पर्यायवाची शब्दों का शब्दकोश हैं।

•'नुहसिपहर' एक भाषा कोश हैं जिसमें विभिन्न भारतीय बोलियों का वर्णन है तथा भारतभूमि की प्रशंसा की गई है।

•'हालात ए कन्हैया' खुसरो की कृष्ण काव्य रचना है। 

•गद्य रचनाएँ:- 

•खजाइनुल फतह- अलाउद्दीन खिलजी की वीरगाथा का वर्णन।

•एजाजयेखुसरवी- अलंकार संबंधी ग्रंथ।

•रचनाओं का संकलन:-

•जवाहरे खुसरवी- 1918 ईस्वी, मौलाना रसीद अहमद सलाम, अलीगढ़।

•खुसरो की हिन्दी कविता- 1922 ईस्वी, ब्रजरत्नदास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी।

•विशेष:-

• अमीर खुसरो खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम कवि है।

•अमीर खुसरो ने 'हिंदवी' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया।

•रामकुमार वर्मा ने खुसरो को अवधी बोली का प्रथम कवि माना।

•हिन्दु-मुस्लिम संस्कृति के प्रथम समन्वयकर्ता।

•उर्दू/हिन्दी  गीत परंपरा के प्रथम कवि।

•रामचंद्र शुक्ल:- "जिस ढंग के दोहे, तुकबंदियां और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीं उसी ढंग के पद्य,पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई।

•खुसरो ने अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के निधन पर निम्न पंक्तियां कहीं:-

*गोरी सोवै सेज पर,मुख पर डारे केस।

 चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।।

•अमीर खुसरो के कुछ महत्वपूर्ण गीत 

       *काहे रे बिहाये परदेस, सुन बाबुल मोरे…

       *खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग…छाप तिलक सब...

Tuesday, 20 April 2021

मलिक मुहम्मद जायसी

 •जीवनकाल:- 1492-1542 ईस्वी 

•जन्म स्थल:- जायस (अमेठी, उत्तरप्रदेश)

•गुरु:- शेख मोहिदी, शेख बुरहान, सैय्यद अहमद

•सूफ़ी संप्रदाय:- जायसी किस सूफ़ी संप्रदाय से संबंधित है, इस संदर्भ में निम्न दो मत मिलते हैं:-

•चिश्तिया संप्रदाय:- रामचंद्र शुक्ल एवं परशुराम चतुर्वेदी 

•मेहदवी संप्रदाय:- रामपूजन तिवारी एवं रामखेलावन पाण्डेय 

•रचनाएँ:- 

•आखिरीकलाम:- 1528 ईस्वी में बाबर के समय रचित। रोजे क़यामत (प्रलय के दिन) का वर्णन। बाबर की प्रशंसा की गई।

•अखरावट:- वर्णमाला के अक्षरों के अनुसार सूफ़ी सिद्धांत चौपाई छंद में अभिव्यक्त।

•कहरनामा:- कहरवा शैली में आध्यात्मिक विवाह का वर्णन।

•मसलानामा:- ईश्वर भक्ति एवं प्रेम निवेदन संबंधित ग्रंथ 

•चित्ररेखा:-लघु प्रेमाख्यान काव्य। चंद्रपुर की राजकुमारी चंद्ररेखा का वर्णन। मोहम्मद साहब एवं उनके चार मित्रों का वर्णन भी इसमें मिलता है।

•कान्हावत

•पद्मावत:-

•रचनावर्ष:- 1540 ईस्वी 

• 57 खण्डों में विभक्त महाकाव्य

•भाषा- ठेठ अवधी  

•इस महाकाव्य में चित्तौड़ के राजा रत्नसेन एवं सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम विवाह एवं विवाहोत्तर जीवन का मार्मिकता से वर्णन किया गया है। साथ ही रत्नसेन की पहली पत्नी नागमति के विरह का कवि ने अद्वितीय वर्णन किया है। इतिहासकारों ने इसके पूर्वार्ध भाग को कल्पना प्रसूत एवं उत्तरार्ध भाग को ऐतिहासिक माना है।

•हरदेव बाहरी ने पद्मावत का मूल कथा स्रोत प्राकृत रचना 'रत्नशेखर कथा' को बताया है।

•पद्मावत को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी का प्रथम बड़ा महाकाव्य', समासोक्ति एवं 'भक्तिकाल का वेदवाक्य' कहा तो नगेन्द्र ने 'रोमांचक शैली का कथा काव्य' कहा।

•पद्मावत 'रुपक काव्य'(Allegory) भी है,इसके विभिन्न पात्रों के दार्शनिक प्रतीक भी प्राप्त होते है। यथा:'

तन चितउर मन राजा कीन्हा।हिय सिंघल बुद्धि पद्मिनी चीन्हा

गुरु सुआ जेइ पंथ दिखावा।बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा

नागमति यह दुनिया धंधा। बांचा सोइ न एहिचित बंधा

राघवदूत सोई सैतानमाया अलाउद्दी सुलतानू।।

रामचंद्र शुक्ल ने इसमें फेरबदल कर रत्नसेन को आत्मा एवं पद्मावती को परमात्मा बताया है।

•पद्मावत का बांग्ला भाषा में अनुवाद 1650 ईस्वी में अराकान के वजीर मगन ठाकुर ने आलोउजाला नामक कवि से करवाया।

•जायसी पर रचित आलोचना ग्रंथ:-

• जायसी ग्रंथावली(1924):- रामचंद्र शुक्ल 

•जायसी(1983):- विजयदेवनारायण साही

•जायसी:एक नई दृष्टि :- डाॅ.रघुवंश 

•जायसी की प्रतिनिधि पंक्तियाँ:-

•तीन लोक चौदह खंड,सबै परि मोहि सूझि

•मुहम्मद बाजी प्रेम की,ज्यौं भावैं त्यौं खेल

•मानुष प्रेम भयहुँ बैकुण्ठी,नांहि ते कहा छार भरी मुट्ठी 

•पद्मावत चाहत ऋतु पाई,गगन सोहावत भूमि सोहाई।

• चढ़ा आषाढ़ गगन घन गाजा।साज विरह दुंद दल बाजा।

•मनसरोदक बरनौ कहा। भरा समुंद अस अति अवगाही।

•रवि ससि नखत दिपति ओहि जोती।

•नौ पौरी तेहि गढ़ मंझियारा। ओ तहं फिरहिं पांच कोटवारा

•भंवर केस वह मालती रानी। विसहर तुरहिं लेहिं अरघानी

•नयन जो देखा कंवल भा,निरमल नीर सरीर

•नव पौरी पर दसम दुआरा।तेहि पर बाज राज घटियारा।

•पिउ से कहेउ संदेसड़ा,हे भौरा,हे काग।

•प्रमुख कथन:-

•रामचंद्र शुक्ल:- एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के ह्रदयों से होता हुआ गया है जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूप रंग के भेदों की ओर से ध्यान हटा एकत्व का अनुभव करने लगता है।

•रामचंद्र शुक्ल:- नागमति का विरह वर्णन हिन्दी साहित्य की अद्वितीय वस्तु है।

•रामचंद्र शुक्ल:- अपनी भावुकता का बड़ा भारी परिचय जायसी ने इस बात में दिया है कि रानी नागमति विरहदशा में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है और अपने को केवल साधारण नारी के रूप में देखती है। इसी सामान्य स्वाभाविक वृत्ति के बल पर उसके विरह वाक्य छोटे-बड़े सबके ह्रदय को समान रूप में स्पर्श करते है।

•रामचंद्र शुक्ल:- जायसी का विरह वर्णन कहीं-कहीं अत्युक्तिपूर्ण होने पर भी मजाक की हद तक नहीं पहुंचने पाया है, उसमें गांभीर्य बना हुआ है।

•रामचंद्र शुक्ल:- हिन्दी के कवियों में यदि कहीं रमणीय,सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद हैं तो वह जायसी का है जिनकी भावुकता बहुत ही उच्च कोटि की है।

• रामचंद्र शुक्ल:- जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है, पर उसका माधुर्य निराला है। वह माधुर्य भाषा का माधुर्य है, संस्कृत का माधुर्य नहीं।

• रामचंद्र शुक्ल:- जायसी की भाषा देशी सांचे में ढली हुई, हिन्दुओं के घरेलू भाव से भरी हुई बहुत ही मधुर और ह्रदय ग्राही है।

•विजयदेवनारायण साही:- जायसी में अपने स्वाधीन चिंतन और प्रखर बौद्धिक चेतना के  लक्षण मिलते है जो गद्दियों और सिलसिलों की मठी या सरकारी नीतियों से अलग है। इस अर्थ में जायसी यदि सूफ़ी है तो कुजात सूफ़ी है।

•विजयदेवनारायण साही:- जायसी के पद्मावत में न सिर्फ एक विशेष जीवन दृष्टि है,बल्कि एक स्पष्ट सामाजिक सांस्कृतिक समन्वय भी है।

•विजयदेवनारायण साही:- जायसी का प्रस्थान बिंदु न ईश्वर है न कोई नया आध्यात्म। उनकी चिंता का मुख्य ध्येय मनुष्य हैं।

•विजयदेवनारायण साही:- पद्मावत जिन्दगी का एक दर्शन नहीं, जिन्दगी है। वह जायसी का तसव्वुफ़ नहीं, जाससी की कविता है।

•विजयदेवनारायण साही:- पद्मावत का पूर्वार्ध भाग 'यूटोपिया' हैं।

@ मनीष माली द्वारा संपादित

Wednesday, 14 April 2021

विद्यापति

 •रचनाकाल:-1350ईस्वी- 1460 ईस्वी के मध्य 

•जन्म स्थल:-ग्राम विसपी,जिला दरभंगा(बिहार)

•पिता:-गणपति 

•गुरु:-पण्डित हरिमिश्र

• आश्रयदाता:-तिरहुत के राजा गणेश्वर,कीर्तिसिंह एवं शिवसिंह 

•उपाधियां:-

•स्वयं को 'खेलनकवि' कहा।

• बच्चन सिंह- जातिय कवि, अपरुप का कवि

•हजारीप्रसाद द्विवेदी:- श्रृंगार रस का सिद्ध वाक् कवि

•अन्य-मैथिली कोकिल,अभिनवजयदेव,नवकविशेखर, कविकण्ठहार, दशावधान,पंचानन आदि।

•रचनाएँ:-संस्कृत, अवहट्ट एवं मैथिली भाषा में 

•संस्कृत भाषा में:- शैवसर्वस्वसार, गंगावाक्यावली, दुर्गाभक्ति तरंगिणी, भूपरिक्रमा, दानवाक्यावली, पुरूष परीक्षा,  लिखनावली, विभागसार, गयपत्तलकवर्णकृत्य।

•अवहट्ट भाषा में:- कीर्तिलता(1403 ईस्वी), कीर्तिपताका(1403 ईस्वी, अप्राप्य रचना)

•मैथिली भाषा में:- पदावली (1380 ईस्वी)

• गोरक्षविजय नाटक:- विद्यापति द्वारा रचित एक अंक का नाटक जिसके संवाद संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में तथा गीत मैथिली भाषा में रचित है।

•note:- विद्यापति की रचना कीर्तिलता तिरहुत के राजा कीर्तिसिंह एवं शिवसिंह का प्रशस्तिपरक काव्य हैं। इस रचना को विद्यापति ने पुरुष कहाणी कहा है तथा इस रचना को हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भृंग-भृंगी संवाद' की संज्ञा दी है।

•विद्यापति-श्रृंगारी,भक्त या रहस्यवादी ?:- विद्यापति को मूलतः श्रृंगारी कवि माना जाता है, विभिन्न मत-

•श्रृंगारी:-रामचंद्र शुक्ल, हरप्रसाद शास्त्री, रामकुमार वर्मा,  रामवृक्ष बेनीपुरी,सुभद्रा झा आदि।

•भक्त:- बाबू ब्रजनंदनसहाय,श्यामसुंदर दास, हजारीप्रसाद द्विवेदी।

•रहस्यवादी:- जार्ज ग्रियर्सन, जनार्दन मिश्र, नागेन्द्रनाथ गुप्त 

•विशेष:-

•हजारीप्रसाद द्विवेदी ने विद्यापति को भक्त कवि माना लेकिन जब उनके काव्य पक्ष पर वे टिप्पणी करते हैं तो उन्हें 'श्रृंगार रस का सिद्ध वाक् कवि' मानते हैं।

•विद्यापति ने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य में 'कृष्ण' को काव्य का विषय बनाया।

•सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने पदावली के श्रृंगारीक पदों की मादकता को 'नागिन की लहर' कहा।

•पदावली में भगवान शिव की भक्ति में रचे गये पद जो नृत्य के साथ गाये जाते है, 'नचारी' कहलाते हैं।

•रामचंद्र शुक्ल:- आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं, उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीतगोविंद' में आध्यात्मिक संकेत बताया है,वैसे ही विद्यापति के इन पदों में भी।

•रामचंद्र शुक्ल:- जयदेव की दिव्यवाणी  की स्निग्धधारा जो कि काल की कठोरता में दब गयी थीं, अवकाश पाते ही मिथिला की अमराइयों में प्रकट होकर विद्यापति के कोकिल कंठ से फूट पड़ी।

•शान्तिस्वरूप गुप्त:- विद्यापति पदावली से साहित्य के प्रांगण में जिस अभिनव बसंत की स्थापना की है, उसके सुख-सौरभ से आज भी पाठक मुग्ध है,क्योंकि उनके गीतों में जो संगीत धारा प्रवाहित होती है वह अपनी लय सुर ताल से पाठक या श्रोता को गदगद कर देती है।

•श्यामसुंदर दास:-हिन्दी में वैष्णव साहित्य के प्रथम कवि प्रसिद्ध मैथिली कोकिल विद्यापति हुए। उनकी रचनाएं राधा एवं कृष्ण के पवित्र प्रेम से ओत-प्रोत हैं।

•रामकुमार वर्मा:- राधा का प्रेम भौतिक और वासनामय प्रेम है। आनंद ही उसका उद्देश्य है और सौन्दर्य ही उसका कार्य कलाप।

•रामकुमार वर्मा:- वयः संधि में ईश्वर से संधि कहां,सद्यस्नाता में ईश्वर से नाता कहां और अभिसार में भक्ति का सार कहां?"

•बच्चन सिंह:- विद्यापति का प्रेम न तो रोमेंटिकों की तरह वायवीय है और न भक्तों की तरह दिव्य। वे अपरुप के कवि है।

•बच्चन सिंह:- मैथिली की मिठास, लोकधुनों का समावेशन, तन्मयीभूत करने की अपनी क्षमता के कारण पदावली आज भी लोकप्रिय है और कल भी रहेगी।

•प्रमुख पंक्तियाँ:-

•देसिल बअना सब जन मिट्ठा। (कीर्तिलता)

•जय जय भैरवी असुर भयाउनि, पसुपति भामिनि माया।

•नंदक नंदन कदम्बक तरूतर,धिरे-धिरे मुरलि बजाव।

•सहज सुन्दर गौर कलेवर पीन पयोधर सिरी।

•खने-खने नयन कोन अनुसरई,खने-खने बसन धूलि तनु भरई

• पीन पयोधर दूबरि गता,मेरु उपजल कनक लता।

• जहां जहां पद जुग धरई,तहिं तहिं सरोरूह झरई।

• नब वृंदावन नब-नब तरुगन,नब-नब बिकसित फूल।

•सरस बसंत समय भल पाओलि,दखिन पबन बहु धीरे।

•सैसब जौबन दुहु मिलि गेल।

• सखि हे, पूछसि अनुभब मोय।

Monday, 12 April 2021

काव्य लक्षण

•आचार्य भरतमुनि:- अर्थक्रियापेतम् काव्यम् 

•भामह:- शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्

•दण्डी:- शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली 

•वामन:- काव्य शब्दोडयं गुणालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थोर्वर्तते

•रुद्रट:- ननु शब्दार्थौ काव्यं 

•वाग्भट्ट:- शब्दार्थौ निर्दोषो सगुणौ प्रायः सालंकारौ काव्यम् 

•हेमचंद्र:- अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थौ काव्यं 

•कुंतक:- शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनी कवः कर्म काव्यं 

•आनंदवर्धन:- शब्दार्थ शरीरं तावत् काव्यं। सह्रदयह्रदयाह्लादि शब्दार्थमयत्वमेव काव्य लक्षणम्

•मम्मट:- तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि। लौकोतर वर्णन निपुण कवि कर्म काव्यं 

•जयदेव:- निर्दोषो लक्षणवती सरीतिर्गुण भूषिता। सालंकाररसानेक वृत्तिर्वाक् काव्यनाम् भाक्।।

•विद्यानाथ:- गुणालंकार सहितौ शब्दार्थौ दोष वर्जितो। गद्य पद्योभरमय काव्यं काव्यविदो विदुः।।

•विद्याधर:- शब्दार्थौ वपुरस्य तत्र विबुधैरात्माभ्यधायि ध्वनि। काव्यतीति इति कविः तस्य कर्मः काव्यं 

•भोज:- निर्दोष गुणवत्काव्यमलंकारैरलंकृतम्

•जगन्नाथ:- रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्

•विश्वनाथ:- वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्

•शौद्धोदनि:- काव्यं रसादिमद् वाक्यंश्रुतम् सुखविशेषकृत्।

•राजशेखर:- गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्। शब्दार्थयोर्यथावत् सालंकारो च शब्दार्थौं काव्यम्।

•केशवदास:- जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त। भूषण बिनु न बिरेजई कविता बनिता मित्त।।

•केशवदास:- राजत रंच न दोष युत कविता बनिता मित्त। बुन्दक हाला परत ज्यों गंगाघट अपवित्त।

•चिंतामणि:- सगुण अलंकारन सहित दोष रहित जो होइ। शब्द अर्थ वारौ कवित्त विबुध कहत सबकोइ।। ( मम्मट से प्रभावित)

•चिंतामणि:-  बत कहाउ रस मैं जु है कवित्त कहावै सोई। ( विश्वनाथ से प्रभावित)

•कुलपति मिश्र:- जगते अद्भुत सुख सदन सब्दरु अर्थ कवित्त। यह लच्छन मैंने कियो समुझि ग्रंथ बहुचित।।

•कुलपति मिश्र:- दोष रहित अरु गुन सहित कछुक अल्प अलंकार। सबद अरथ सो कवित्त है ताकौ करो विचार।।

•देव:- शब्द सुमति मूख ते कहै ले पद पचननि अर्थ। छन्द भाव भूषण सरस सो कहि काव्य समर्थ। काव्य सार शब्दार्थ को रस तेहि काव्य सुसार।।

•सुरति मिश्र:-बरनन मनरंजन जहां रीति अलौकिक होइ। निपुण कर्म कवि कौ जु तिहिं काव्य कहत सब कोइ।।

•सोमनाथ:- सगुण पदारथ दोष बिनु पिंगल मत अवरुद्ध। भूषण जुत कवि कर्म जो सो कवित्त कहिं सुद्ध।।

•श्रीपति मिश्र:- शब्द अर्थ बिनु दोष गुन अलंकार रसवान। ताको काव्य बखानिए श्रीपति परम सुजान।।

•भिखारीदास:- जाने पदारथ भूषण मूल लसांग परांगह्न मैं मति झाकी। सो धुनि अर्थवत् वाक्यह्न ले गुन शब्द अलंकृत सो रति पाकी।

•प्रतापसाहि:- व्यंग्य जीव कहि कवित को ह्रदय सो धुन पहिचानि। शब्द अर्थ कहि देह पुनि भूषन भूषन जानि।।

•बालकृष्ण भट्ट:- साहित्य जनसमूह के ह्रदय का विकास है।

•महावीरप्रसाद द्विवेदी:- ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम कविता है।

•महावीरप्रसाद द्विवेदी:-अंतः करण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है।

•महावीरप्रसाद द्विवेदी:- कविता प्रभावशाली रचना है जो पाठक या श्रोता के मन पर आनंदमय प्रभाव डालती है।

•महावीरप्रसाद द्विवेदी:- मनोभाव शब्दों का रूप धारण करते है, वही कविता है। चाहे वह पद्यात्मक हो, चाहे गद्यात्मक।

•रामचंद्र शुक्ल:- जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार ह्रदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। ह्रदय की मुक्तावस्था के लिए मनुष्य वाणी जो शब्द विधान करती आयीं है उसे कविता कहते है। 

•रामचंद्र शुक्ल:- सत्त्वोद्रेक या ह्रदय की मुक्तावस्था के लिये किया हुआ शब्द विधान काव्य है।

•रामचंद्र शुक्ल:- जो उक्ति ह्रदय में कोई भाव जाग्रत कर दे या उसे प्रस्तुत कराने वाला या तथ्य की मार्मिक भावना में लीन कर दे वह काव्य है।

•प्रेमचंद:- साहित्य जीवन की आलोचना है। ( मैथ्यू आर्नल्ड से प्रभावित)

•प्रेमचंद:- जिस साहित्य में हमारी रूचि न जगे, आध्यात्मिकता और मानसिक तृप्ति न मिलें, हममें गति और शांति पैदा न हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जाग्रत हो, न सच्ची दृढ़ता उत्पन्न करें, वह आज हमारे लिये बेकार है। वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।

•महात्मा गांधी:- साहित्य वह है जिसे चरस खींचता हुआ किसान भी समझ सके और ख़ूब पढ़ा लिखा भी।

•श्यामसुंदर दास:- किसी पुस्तक को हम काव्य या साहित्य की उपाधि तभी दा सकते है, जब जो कुछ उसमें लिखा है वह कला उद्देश्यों की पूर्ति करता है, यही एकमात्र उचित कसौटी है।

•नगेन्द्र:- वाणी के माध्यम से सौंदर्य की अभिव्यक्ति का नाम कविता है।

•नगेन्द्र:- सरस शब्दार्थ का नाम कविता है।

•नगेन्द्र:- साहित्य मानव समाज की भावात्मक स्थिति और गतिशील चेतना की अभिव्यक्ति है।

•नगेन्द्र:- रमणीय अनुभूति, उक्तिवैचित्र्य और छंद…इन तीनों का समंजित रुप ही कविता है 

•नगेन्द्र:- काव्य आत्माभिव्यक्ति है।

•नगेन्द्र:- रसात्मक शब्दार्थ काव्य है और उसकी छंदोमयी विशिष्ट विधा आधुनिक अर्थ में कविता है।

•जयशंकर प्रसाद:- कविता आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेम रचनात्मक ज्ञानधारा है। काव्य या साहित्य आत्मा की अनुभूतियों का नित्य नया रहस्य खोलने में प्रयत्नशील है।

•महादेवी वर्मा:- कविता कवि विशेष की भावनाओं का चित्रण है और वह चित्रण इतना ठीक है कि उससे वैसी ही भावनाएं किसी दूसरे के ह्रदय में आविर्भूत हो जाती है।

•सुमित्रानंदन पंत:- कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की अभिव्यक्ति है।

•हजारीप्रसाद द्विवेदी:- भावावेश, कल्पना और पद लालित्य को कविता कहा जाता है।

•गुलाबराय:- काव्य संसार के प्रति कवि की भावप्रधान किंतु वैयक्तिक संबंधों से मुक्त मानसिक प्रतिक्रियाओं, कल्पना के सांचे में ढली हुई, श्रेय की प्रेयरुना प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है।

•नंददुलारे वाजपेयी:- काव्य तो प्राकृत अनुभूतियों का नैसर्गिक कल्पना के सहारे ऐसा सौंदर्यमय चित्रण है जो मानवमात्र के स्वभावतः अनुरूप भावोच्छवास और सौंदर्य संवेदन उत्पन्न करता है। इसी सौंदर्य संवेदन को पारिभाषिक शब्दावली में रस कहते है।

•रामविलास शर्मा:- काव्य एक महान सामाजिक क्रिया है, जो सामाजिक विकास के समानांतर विकसित होती है।

•भगीरथ मिश्र:- शब्द, अर्थ और दोनों की रमणीयता से युक्त वाक्य रचना को काव्य कहते है।

•रामस्वरूप चतुर्वेदी:- कविता उत्कृष्ट शब्दों का उत्कृष्ट क्रम है। ( कॉलरिज से प्रभावित)

•अज्ञेय:- काव्य सबसे पहले शब्द है और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है।

•मुक्तिबोध:- काव्य एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है।

•जगदीश गुप्त:- कविता सहज आंतरिक अनुशासन से युक्त अनुभूति जन्य सघन लयात्मक शब्दार्थ है जिसमें सह अनुभूति उत्पन्न करने की यथेष्ट क्षमता निहित रहती है।

•गिरिजाकुमार माथुर:- कविता जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। 

•लक्ष्मीकांत वर्मा:- कविता आत्मपरक अनुभूति की रागात्मक अभिव्यंजना है और नयी कविता लघुमानव के लघु परिवेश की सच्ची अभिव्यक्ति है। 

•कुंवर नारायण:- कविता मेरे लिए कोरी भावुकता की हाय-हाय न होकर यथार्थ के प्रति एक प्रौढ़ प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है। 

•केदारनाथ सिंह:- कविता अपने अनावृत्त रुप में केवल एक विचार, एक भावना, एक अनुभूति, एक दृश्य और इन सबका कलात्मक संगठन है।

•धूमिल:- कविता भाषा में आदमी होने की तमिज है।

•अरस्तु:- काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है।

•लोजाइनस:- उदात्त काव्य के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है। उदात्त महान आत्मा की प्रतिध्वनि है।

•ड्राइडन:-काव्य रागात्मक और छंदोबद्ध भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है।

•ड्राइडन:- व्यक्त संगीत काव्य है।

•वर्डसवर्थ:- कविता बलवती भावनाओं का सहज उच्छलन होती है। शांत अवस्था में भाव के स्मरण से उसका उद्भव होता है।

•कॉलरिज:- सर्वोत्तम शब्दों का सर्वोत्तम क्रम कविता है।

•कॉलरिज:- कविता रचना का वह प्रकार है जो वैज्ञानिक कृतियों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसका तात्कालिक प्रयोजन आनंद है, सत्य नहीं।  और रचना के सभी प्रकार से उसका अंतर यह है कि संपूर्ण से वही आनंद प्राप्त होना चाहिए जो उसके प्रत्येक घटक खंड ( अवयव) से प्राप्त होने वाली स्पष्ट संतुष्टि के अनुरूप हो।

•मैथ्यू आर्नल्ड:- काव्य सत्य और काव्य सौंदर्य के सिद्धांतोंद्वारा निर्धारित उपबंधों के अधीन जीवन की आलोचना का नाम काव्य है।

•आई. ए. रिचर्ड्स:- काव्य अनुभूतियोंका एक ऐसा वर्ग है जो मानक अनुभूति से प्रत्येक विशेषता में भिन्न होते हुए भी किसी विशेषता में एक खास मात्रा में भिन्न नहीं होती।

•टी. एस. इलियट:- कविता या कला कवि के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है क्योंकि उसे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करनी ही नहीं है। वह तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम मात्र हो जो केवल माध्यम है, व्यक्तित्व नहीं।…काव्य भाव का स्वच्छ प्रवाह नहीं, भाव से मुक्ति या पलायन है। वह व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से मुक्ति है।

•जॉनसन:- कविता शब्दों, विचारों को व्यक्त करने की कला है, जो कल्पना और अहसास की रचना है। 

•जॉनसन:- कविता छन्दोमयी रचना है। 

•जॉनसन:- कविता वह कला है जो कल्पना की सहायता से विवेक द्वारा सत्य और आनंद का संयोजन करती है।

•कार्यायल:- संगीतपूर्ण विचार को काव्य कहते है।

•शेली:- विषादमय क्षणों की अभिव्यक्ति कविता है। 

•पी.बी.शैली:- कविता को कल्पना की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। 

•पी.बी.शैली:- कविता सर्वाधिक सुखद और सर्वोत्तम मन के सर्वोत्तम और सर्वाधिक सुखपूर्ण क्षणों का लेखा है।

•एडगर एलन पो:- कविता लय के माध्यम से सौंदर्य की सृष्टि है। 

•ली हण्ट:- कलात्मक मनोवेग चा नाम कविता है। 

•हडसन:- कविता कल्पना की अभिव्यक्ति है।…कविता जीवन की व्याख्या है जो कल्पना और भावना द्वारा निर्मित होती है। 

•विल्सन:- भावनाओं से रंजित बुद्धि काव्य है।

•कोर्ट होप:- शब्दोबद्ध भाषा में भाव, कल्पना की आनंदमय अभिव्यक्ति ही काव्य है।

•मिल:- बुद्धि और भाव का संयोग काव्य है।

•हैजलिट:- कल्पना और मानव मनोवेगों की भाषा काव्य है।


पृथ्वीराज रासो

रचियता:- चंदवरदाई (लाहौर के भट्ट जाति के जगात गोत्र में जन्म)

समय:- 1225-1249 विक्रम संवत् (1168-1192 ईस्वी)

•पृथ्वीराज के राजकवि जयानक ने 'पृथ्वीराज विजय' में चंद का नाम 'पृथ्वीभट्ट' तो गौरीशंकर हीरानंद ओझा ने चंद्रक कवि बताया।

•रामचंद्र शुक्ल के अनुसार चंद को जालंधरी देवी का इष्ट था।

सर्वप्रथम जानकारी:-कर्नल जेम्स टॉड ने अपने ग्रंथ 'एनल्स एण्ड एक्टिविटीज ऑफ राजस्थान'(1839 ईस्वी) में प्रदत्त की तथा पृथ्वीराज रासो का एक भाग 'संगोपता नेम' नाम से कर्नल जेम्स टॉड ने प्रकाशित करवाया।

सर्वप्रथम प्रकाशन:- 1883 ईस्वी में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी बंगाल द्वारा 

पृथ्वीराज रासो के संस्करण:-

•वृहद् रुपांतरण:- 69 समय तथा 16306 छंद, श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित तथा 1905 ईस्वी में नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित। मूल प्रति 1585 ईस्वी में लिखित जो वर्तमान में उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित।

•मध्यम रुपांतरण:- 7000 छंद की अप्रकाशित प्रति जो आबोहर ( बीकानेर) में सुरक्षित। यह 17वीं सदी में लिखित।

•लघु रुपांतरण:- 19 समय, 3500 छंद की अप्रकाशित प्रति जो बीकानेर में सुरक्षित।

•लघुत्तम संस्करण:- 1300 छंद की प्रति जो डॉ.दशरथ शर्मा द्वारा संपादित तथा प्रकाशित, दशरथशर्मा मूल संस्करण इसी प्रति को मानते है।

•पृथ्वीराज रासो के कुछ छंद मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित 'पुरात्तन प्रबंध संग्रह'(1441 ईस्वी) में मिलते है।

काव्य स्वरूप:- प्रबंधात्मक श्रेणी के अंतर्गत महाकाव्य ( नरोत्तम स्वामी ने इसे मुक्तक काव्य कहा)

काव्य विभाजन:- 69 समय तथा 16306 छंद 

प्रथम समय:- आदिपर्व समय 

सबसे बड़ा समय:- कनवज्ज युद्ध (61 वां समय, रासो का मूल कथानक)

पद्मावती विवाह समय:- 20 वां समय 

कयमास वध समय:- 57 वां समय 

नायक:- पृथ्वीराज चौहान तृतीय (धीरोदात्त नायक)

नायिका:- संयोगिता( मुग्धा नायिका)

सहनायिका:- पद्मावती 

अंगीरस(प्रधान रस):- श्रृंगार तथा वीररस

प्रधान अलंकार:- अनुप्रास तथा यमक

प्रधान छंद:- 68 प्रकार के छंद प्रयुक्त। कवित्त (रोला+उल्लास) का सर्वाधिक प्रयोग। इसके अतिरिक्त दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा तथा आर्या छंदों का प्रयोग। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने चंदवरदाई को 'छप्पय सम्राट' कहा। शिवसिंह सेंगर तथा नामवर सिंह ने चंदवरदाई को छंदो का राजा कहा है।शिवसिंह सेंगर ने पृथ्वीराज रासो  को छंदों का  अजायबघर कहा। छप्पय को ही आधुनिक युग में कवित्त कहा गया है।

भाषा शैली:- पिंगल शैली अर्थात् राजस्थानी तथा ब्रजभाषा का सम्मिलित प्रयोग किया गया है। डॉ.दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराजरासो की भाषा प्राचीन राजस्थानी मानी। भाषा की अभिधेय शक्ति का प्रभावशाली वर्णन कियागया है।

प्रमाणिकता विवाद:- तीन मत प्रचलित 

1. प्रमाणित:- श्यामसुंदर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या, मिश्रबंधु, कर्नल जेम्स टॉड, जॉर्ज ग्रियर्सन, डॉ.नगेन्द्र, दशरथ शर्मा, अयोध्या प्रसाद सिंह हरिऔध, मथुराप्रसाद दीक्षित 

2.अर्द्धप्रमाणित:- हजारीप्रसाद द्विवेदी, मुनि जिनविजय, सुनीतिकुमार चटर्जी, अगरचंद नाहटा

3.अप्रमाणित:- डॉ. बूलर, रामचंद्र शुक्ल, गौरीशंकर हीरानंद ओझा, मुरारिदान, श्यामलदान, मुंशी देवी प्रसाद, मोतीलाल मेनारिया। डॉ. बूलर ने सर्वप्रथम 1875 ईस्वी में जयानक कृत 'पृथ्वीराज विजय' को आधार बनाकर अप्रमाणित माना।

पृथ्वीराज रासो को प्राप्त संज्ञाएँ:-

•शुक-शुकी संवाद- हजारीप्रसाद द्विवेदी 

•महाभारत की तरह विशाल महाकाव्य, घटनाकोश- डॉ.नगेन्द्र 

•भट्ट भणंत, जाली ग्रंथ- रामचंद्र शुक्ल 

•विशाल वीरकाव्य-श्यामसुंदर दास 

•उक्ति श्रृंखला, छंद श्रृंखला-माता प्रसाद गुप्त 

•स्वाभाविक विकासशील महाकाव्य-गुलाबराय 

•हिन्दी का वृहद् महाभारत- दशरथ शर्मा 

विशेष:- 

•आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ.नगेन्द्र, पं.हरप्रसाद शास्त्री आदि विद्वानों ने इस ग्रंथ के उत्तरार्ध भाग को चंदवरदाई के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण करना बताया है। चंदवरदाई ने 59 समय तथा जल्हण ने 10 समय की रचना की।

•मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या ने पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता सिद्ध करने के लिए एक नये संवत् 'आनंद संवत्' की कल्पना की, यह संवत् विक्रम संवत् से 90-91 वर्ष का अंतर रखता है।

कथन:-

•रामचंद्र शुक्ल:- साहित्य प्रबंध के रुप में जो प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध है, वह है पृथ्वीराज रासो।

•रामचंद्र शुक्ल:- चंदवरदाई हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते है और इनका पृथ्वीराज रासो हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है।

•मिश्रबंधु:- हिन्दी का प्रथम वास्तविक महाकवि चंदवरदाई को ही कहा जा सकता है।

•रामस्वरूप चतुर्वेदी:- हिन्दी का पहला काव्य और महाकाव्य पृथ्वीराज रासउ हिंदू मुस्लिम संघर्ष की गाथा है।

•रामस्वरूप चतुर्वेदी:- पृथ्वीराज रासउ हिन्दी की अपनी महाकाव्य परंपरा की बड़ी उपयुक्त प्रस्तावना है।...हिन्दी का चरित्र पहली बार ही बड़े मोहक रुप में भाषा और संवेदना के दोनों स्तर पर इसमें निखर कर आया है।

•बच्चन सिंह:-यह (पृथ्वीराज रासो) एक राजनीतिक महाकाव्य है,दूसरे शब्दों में राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी है।

•नामवर सिंह:- रासो मानव जीवन की विविध परिस्थितियों और भाव दशाओं का महासागर है। यही वह विशेषता है जिससे युग के सभी काव्यों में रासो को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। निश्चय ही आपको यह उस युग की सांस्कृतिक परिस्थितियों तथा पूर्व परंपराओं का वृहद्कोश है और मध्ययुगीन भारतीय समाज का एक काव्यात्मक इतिहास है।

•हजारीप्रसाद द्विवेदी:- इसकी रचना शुक-शुकी संवाद में हुई थी।जिन सर्गों में यह शैली नहीं मिलती उन्हें प्रक्षिप्त मानना चाहिये। इससे वे अंश ही प्रक्षिप्त होते है जिनमें इतिहास विरुद्ध तथ्य है।

•हजारीप्रसाद द्विवेदी:- चंदवरदाई का यह काव्य रासक भी है,जो गेय काव्य हुआ करता था,जिसमें मृदु और उद्धत प्रयोग हुआ करते थे।...चंद ने भी अपभ्रंश की रासकों की शैली पर ही अपना रासो लिखा।

•हजारीप्रसाद द्विवेदी:- ऐसा लगता है कि रासोकार ने पृथ्वीराज को भगवत्स्वरुप बताकर कहानी में थोड़ा धार्मिकता का रंग देना चाहा था।






Thursday, 1 August 2019

नाथ साहित्य

                                    नाथ साहित्य 


नाथ शब्द से आशय हैं-जो मुक्ति प्रदान करें। नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गुरु गोरखनाथ है। जालंधरनाथ(आदिनाथ-शिव), मछंदरनाथ,चर्पटीनाथ,भीमनाथ,भर्तृहरि, गोपीनाथ आदि अन्य प्रमुख नाथ है। नाथ संप्रदाय की मूल मान्यता-मुक्ति के लिए ऐन्द्रिक भोग नहीं बल्कि इन्द्रियों का नियमन,निग्रह या संयम की आवश्यकता है। नाथ संप्रदाय ने सिद्धों के प्रवृत्ति मार्ग के विरूद्ध निवृत्ति मार्ग की स्थापना की। हठयोग नाथ साधना का महत्वपूर्ण उपादान है, जिसमें योग की साधना के माध्यम से 'ह' अर्थात् 'सूर्य' तथा 'ठ' अर्थात् 'चन्द्रमा' का मिलन अर्थात् इन्द्रियों के स्वभाव को पलट देना हठयोग है। इनकी मान्यता के अनुरूप-
              * 'जोई जोई पिण्डे,सोई ब्रह्मांडे'
अर्थात् व्यक्ति के भीतर जो कुडंलिनी होती है,वह ब्रह्मांड में व्याप्त महाकुंडलिनी का ही लघु रूप है या यह कहे की जीव ब्रह्म का ही अंश है।नाथ साहित्य में कर्मकांड और ब्राह्मणवाद के प्रति उपेक्षा का भाव है। इनका आक्रोश बाह्याडम्बर और दुराचार के प्रति स्पष्ट है। जाति एवं वर्णव्यवस्था के प्रति इनका विरोध है। नाथ संप्रदाय में बुद्धिजन्य ज्ञान की अपेक्षा अनुभव प्राप्त ज्ञान को महत्व दिया गया है। सिद्धों के नारी भोग का विरोध कर नाथों संप्रदाय में नारी मुक्ति का प्रस्ताव है लेकिन गृहस्थ जीवन के प्रति विद्रोह एवं नारी को अपनी साधना में बाधक मानकर स्वयं नारी का तिरस्कार करना नाथ साहित्य की सीमा है-
            *नौ लख पातरि आगे नाचे,पीछे सहज अखाड़ा।
             ऐसो मन ले जोगी खेलै,थब अंतरि बसै भंडारा।।
नाथ संप्रदाय में गुरु को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। गुरु से प्राप्त ज्ञान को महत्व दिया गया। चर्पटीनाथ लिखते हैं कि -
          * जाणि के अजाणि होय बात तूं ले पछाणि।
            चेले हो दूआ लाभ होइगा गुरू होइओ आणि।।
नाथ साहित्य का रूप मुक्तक काव्य है। नाथ साहित्य की भाषा अपभ्रंश युक्त पुरानी हिन्दी है जिसमें ब्रज,अवधी तथा पंजाबी के शब्द भी शामिल है। नाथ संप्रदाय में संधा भाषा का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में हुआ है- 
                    * नाथ बोले अमृतवाणी,
                       बरिसैगी कंबली भीजैगा पाणी।
पंडित राहुल साांकृत्यायन ने नाथ पंथ को सिद्धों की परंपरा का विकसित रूप माना है। नाथ पंथ का चरमोत्कर्षकाल 12वीं सदी से 14वीं तक माना जाता है। नाथ संप्रदाय के आदिनाथ को स्वयं शिव माना जाता है। नाथ संप्रदाय में गुरु गोरखनाथ का विशिष्ट एवं सर्वोपरि स्थान है। गुरु गोरखनाथ का समय राहुल साांकृत्यायन ने 845 ईस्वी, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 9वीं शताब्दी,पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने 11वीं शताब्दी तो रामचंद्र शुक्ल एवं रामकुमार वर्मा ने 13वीं शताब्दी माना है। गुरु गोरखनाथ की प्रमुख रचनाएँ सबदी,नरवैबोध,प्राणसंकली एवं आत्मबोध हैं, गुरु गोरखनाथ की संस्कृत रचना 'सिद्ध सिद्धांत पद्धति' नाथ दर्शन की प्रतिष्ठापक है। गुरु गोरखनाथ की अन्य संस्कृत कृतियां विवेक मार्तण्ड, शक्तिसंगमतंत्र,निरंजन पुराण एवं विराट पुराण है। गुरु गोरखनाथ की रचनाओं का प्रमाणिक संकलन 1942 ईस्वी में पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने 'गोरखबानी' नाम से हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित करवाया। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'नाथ सिद्ध की बानिया' पुस्तक का संपादन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित करवाया। नाथ साहित्य की हिन्दी साहित्य के संत काव्य में गृहस्थ अनादर, गुरु सेवा, रूढियों के खंडन,वर्णव्यवस्था पर चोट, कुरीतियों का विरोध आदि महत्वपूर्ण देन है। 

Sunday, 21 July 2019

सिद्ध साहित्य

                         सिद्ध साहित्य 

बौद्ध धर्म में दो शाखाएं है- हीनयान एवं महायान।महायान शाखा में जिन अनुयायियों ने ऐन्द्रजालिक रहस्यमयी शक्तियों को प्राप्त करने को अपना उद्देश्य बनाया, वे वज्रयानी कहलाये।वज्र का आशय शक्ति से है। वज्रयान शाखा में 84 सिद्धों का उल्लेख मिलता है, जिसमें सिद्ध सरहपा का स्थान सर्वोपरि है। अन्य सिद्धों में शबरपा,लुइपा,डोम्भिपा,कण्हपा, कुकुरीपा आदि प्रमुख है।बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का प्रचार करने के लिए अपभ्रंश के दोहों एवं चर्यापदों के  रूप में जो साहित्य रचा गया वह सिद्ध साहित्य कहलाया। साधना अवस्था में निकलीं सिद्धों की वाणी चर्यागीत कहलाती है। सिद्धों ने अपनी साधना का लक्ष्य ज्ञान को न मानकर अनुभूति को माना। तंत्र से प्रभावित होकर उन्होंने अपने समस्त ज्ञान, साधना पद्धति, हठयोग को अनुभूति के रंग में रंग दिया। उसके पीछे सिद्धों का उद्देश्य था-बौद्ध धर्म के निवृत्तिमूलक दुःखवादी रूप का निराकरण करके आनंद भावना की प्रतिष्ठा करना। आनंद को ही सिद्धों ने आध्यात्मिक गहनता माना। सिद्धों की भाषा के संदर्भ में विचार करते हुए मुनि अद्वयवज्र तथा मुनि दत्त सूरि ने इसे 'संधा' या 'संध्या' भाषा कहा, जिसका आशय कुछ स्पष्ट व कुछ अस्पष्ट से है। वस्तुतः कबीर के साहित्य में मिलने वाली उलटबासी का पूर्व रूप सिद्धों में इस संधा भाषा के प्रयोग में ही निहित है। सिद्ध साहित्य की प्रशंसा करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि-" जो जनता तत्कालीन नरेशों की स्वेच्छाचारिता,पराजय या पतन से त्रस्त होकर निराशावाद के गर्त में गिरी हुई थी, उसके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी बूटी का कार्य किया।" प्रमुख सिद्ध रचनाकारों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1.सरहपा- ये सरहपाद,सरोजवज्र,राहुुुलभद्र आदि कई नामों से प्रख्यात है। ये जाति से ब्राह्मण थे। राहुल सांकृत्यायन ने इनका समय 769 ईस्वी निर्धारित किया। राहुल सांकृत्यायन एवं अन्य विद्वानों ने इन्हें हिन्दी साहित्य का प्रथम कवि स्वीकृत किया है। इनके 32 ग्रंथों में 'दोहाकोश' सर्वाधिक चर्चित है। इन्हें वज्रयान शाखा में सहजयान अतः सिद्धमार्ग की स्थापना की। इन्होंने सर्वप्रथम 'चौपाई+दोहा' का प्रयोग किया। इन्होंने 
पाखंड और आडम्बर का विरोध किया एवं गुरु सेवा को महत्व दिया। ये सहज भोगमार्ग से जीव को महासुख की ओर ले जातें हैं। डॉ. वी. भट्टाचार्य ने सरहपा को बांग्ला भाषा का प्रथम कवि माना। सरहपा की भाषा पर बच्चन सिंह लिखते हैं कि-  "आक्रोश की भाषा का सबसे पहला प्रयास सरहपा में दिखाई पड़ता है।" सहरपा की प्रसिद्ध पंक्तियाँ-
        * नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल।
        *जह मन पवन न संचरइ, रवि शशि नाह पवेश।
        * पंडित सअल सत्थ बक्खाणइ।
        * घोर अंधारे चंदमणि जिमि उज्जोअ करेई।
        *घर वह खज्जहि सहजे रज्जइ,किज्जइ राअ।
2.शबरपा-शबरपा का जन्म 780  ईस्वी में क्षत्रिय कुुल में  हुआ। इनके गुरु सरहपा थे। शबरों सा जीवन व्यतीत करने के कारण ये शबरपा कहलाए।  इन्होंने मोह माया का विरोध कर सहज जीवन पर बल दिया। 'चर्यापद' इनकी प्रसिद्ध कृृृति है, इनकी अन्य कृतियां वज्रयोगिनीसाधना एवं महामुुुद्रावज्रगीति
है। इनकी प्रसिद्ध पंक्ति-
          *हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला
3.लुइपा- जन्म 773 ईस्वी में  लगभग, राजा धर्मपाल के समकालीन। ये शबरपा के शिष्य रहे। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार 84 सिद्धों में  इनका स्थान सबसे ऊँचा है। इनका काव्य रहस्यात्मक  भाव का है। इनकी रचना लुइपागीतिका है।  इनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ-
       
    *क्राआ तरूवर पंच विडाल,चंचल चीए पइलो काल।
           *भाव न होइ, अभाव ण जाइ
4.डोम्भिपा- 840  ईस्वी में मगध के क्षत्रिय वंंश में जन्म। इनके गुरु विरूपा थे। इनकी कृतियां डोम्बिगीतिका, योगचर्या एवं अक्षरद्विकोपदेश है।प्रसिद्ध पंंक्ति-
            *गंगा जउना माझेरे बहर नाइ।
5.कण्हपा-820 ईस्वी में कर्नाटक के ब्राह्मण वंश में जन्म। सोमपुरो बिहार इनका कर्म क्षेत्र रहा। जालंधरपा इनके गुरु थे।
इनकी प्रमुख रचनाएँ चर्याचर्यविनिश्चय एवं कण्हपागीतिका है।
इनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ-
           *आगम वेअ पुराणे,पण्डित मान बहंति।
           *हालो डोंबी! तो पुछमि सदभावे।
             सदगुरू पाअ पए जाइब पुणु जिणउरा।
           *एक्क ण किज्जइ मंत्र ण तंत।
           *नजर बाहिरे डोंबी तोहरि कुडिया छइ।
   *जिमि लोण बिलिज्जइ पाणि एहि तिमि धरणी लइ चित्त।
6.कुक्कुरिपा- इनका जन्म कपिलवस्तु में ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनकी कृतियां योगभावनोपदेश एवं चर्ययापद है। इनकी प्रसिद्ध पंक्ति-
   *हांउ निवासी खमण भतारे, मोहोर विगोआ कहण न जाइ।

इन सिद्धों के अतिरिक्त जालंधरपा, विरूपा,कण्डपा आदि प्रमुख सिद्ध हुए हैं।

Tuesday, 9 July 2019

हिन्दी भाषा की उत्पत्ति

हिन्दी  मूलतः फ़ारसी भाषा का शब्द है। हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति सिंधु शब्द से निम्न क्रम में हुई-
                 •सिंधु> हिन्धु> हिन्दु> हिन्द> हिन्दी
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति मूलतः देव भाषा  संस्कृत से मानी जाती है।हिन्दी भाषा की विकास यात्रा संस्कृत से वर्तमान तक निम्न क्रम में चलती है-
•संस्कृत>पाली>प्राकृत > अपभ्रंश >अवहट्ट> खङी बली हिन्दी
*संस्कृत- संंस्कृत  को दो कालखंड वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत में विभक्त किया जाता है। वैदिक संस्कृत का समय 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. स्वीकृत किया जाता है। वैदिक संस्कृत में चारों वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों,तीनों संहिताओं एवं उपनिषदों की रचना हुई है। ऋग्वेद में वैदिक भाषा का प्राचीनतम स्वरूप सुरक्षित है।भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से वैदिक संस्कृत 'अवेस्ता'के सर्वाधिक निकट भाषा है।इसे वैदिकी ,छान्दस,प्राचीन संस्कृत आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है।लौकिक संस्कृत का कालक्रम 1000ई.पू. से 500 ई.पू. माना जाता है।लौकिक संस्कृत में रामायण, महाभारत जैसा लौकिक साहित्य रचा गया तो इसी काल में रचित अभिज्ञानशाकुन्तलम् संस्कृत भाषा का श्रृंगार है।
आधुनिक युग में यूरोप का तुलनात्मक भाषा विज्ञान लौकिक संस्कृत के अध्ययन से ही आरम्भ हुआ है।संस्कृत या लौकिक संस्कृत की सर्व प्रमुख विशेषता यह है कि यह व्याकरण के नियमों से बद्ध है। पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में यह व्याकरण बद्ध की गई।
*पालि-हिन्दी भाषा की विकास यात्रा में 500ई.पू. से 1000 ई. तक का समय मध्यकालीन आर्य भाषा प्राकृत का कालक्रम रहा।प्राकृत को तीन भागों प्रथम प्राकृत पालि,द्वितीय प्राकृत प्राकृत एवं तृतीय प्राकृत अपभ्रंश नाम से अभिहित कि जाती है। प्रथम प्राकृत पालि का समय 500ई.पू. से ईस्वी सन के आरम्भ तक माना जाता है। इसे देशभाषा भी कहा जाता है । कतिपय विद्वानों ने पालि शब्द की व्युत्पत्ति के संदर्भ में विविध मत प्रस्तुत किये है,विधुशेखर भट्टाचार्य ने पालि शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द 'पंक्ति' अतः बुद्ध की पंक्ति से माना,कुछ विद्वान 'पल्लि' अतः गांव से मानकर इसे गांव की भाषा मानते हैं। कुछ विद्वान इसकी व्युत्पत्ति 'पा'( पालेति,रक्खतीति) धातु से 'लि'(णिच्) प्रत्यय करने पर 'पालि' शब्द की उत्पत्ति मानते है,जिसका आशय 'बुद्ध वचनों की रक्षा करने वाली भाषा' है।भिक्षु जगदीश कश्यप के अनुरूप 'पालि'
शब्द का संबंध संस्कृत शब्द  'पर्याय' से है,जिसका प्राकृत रूप परियाम या धम्मपरियाय है,जिसका आशय 'बुद्ध के उपदेश' है। समग्रतः बुद्ध के उपदेशों की वाहक भाषा पालि कहलायी।पालि भाषा में त्रिपिटक ग्रंथों- विनय पिटक,सुत पिटक एवं अभिधम्म पिटक की रचना के साथ ही जातक कथाओं,महावंश,धम्मपद आदि की रचना की गई।
 *प्राकृत- द्वितीय प्राकृत को प्राकृत नाम से ही अभिहित किया जाता है।इसका समय 1ई. से 500 ई. तक माना जाता है।प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणिक दृष्टि से 'प्राक्+कृत' अतः जो 'संस्कृत से पूर्व बनी' से माना गया।एक अन्य मत में प्राकृत शब्द का अर्थ है-'प्रकृत अर्थात् स्वाभाविक या असंस्कृत।' हेमचंद्र, मार्कण्डेय,वासुदेव आदि के अनुसार-'प्राकृत संस्कृतकम् तत्र भवं प्राकृतमुच्यते' अतः प्रकृति(संस्कृत) से उत्पन्न भाषा ही प्राकृत है।इस प्रकार प्राकृत के दो अर्थ हमारे समक्ष उपस्थित होते है- प्रथम जनभाषा एवं द्वितीय प्रकृति या मूल से उत्पन्न अतः संस्कृत से उत्पन्न भाषा। प्राकृत भाषा में मूलतः जैन साहित्य रचा गया। भाषा विज्ञान में प्राकृत के पांच रूप- मागधी,अर्धमागधी,महाराष्ट्रीय प्राकृत,शौरसेनी एवं पैशाची प्राकृत स्वीकृत किये जाते है।
*अपभ्रंश- प्राकृत  की तृतीय अवस्था अपभ्रंश कहलाती है।इसका समय 501ईस्वी से 1000ईस्वी तक माना जाता है।अपभ्रंश का अर्थ है- विभ्रष्ट,भ्रष्ट या पतित। अपभ्रंश का जब हिन्दी भाषा की ओर झुकाव होने लगता है तो मध्यवर्ती अपभ्रंश युक्त भाषा को अवहट्ट की संज्ञा दी गई। अपभ्रंश को भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में 'विभ्रष्ट' भाषा, आ. दण्डी ने काव्यादर्श में 'आभीरादि',किशोरीदास वाजपेयी ने 'ण-ण भाषा'कहा। वहीं अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के मध्य की भाषा को सुनीति कुमार चटर्जी ने 'अवहट्ट' कहा, इसे ही चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने पुरानी हिन्दी भाषा कहा।अतः अपभ्रंश को विद्वानों ने विभ्रष्ट, आभीर,अवहंस,अवहट्ट, अवहत्थ आदि नामों से पुकारा है।अपभ्रंश शब्द का प्राचीनतम प्रयोग पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है।भाषा के अर्थ में अपभ्रंश का प्राचीनतम प्रयोग चण्ड के 'प्राकृत लक्षण' ग्रंथ में मिलता है।अवहट्ट शब्द का प्राचीनतम प्रयोग ज्योतिश्वर ठाकुर के वर्णरत्नाकर में मिलता है। भोलेनाथ तिवारी ने अपभ्रंश के क्षेत्रिय आधार पर पांच भेद प्रस्तुत किये है-शौरसेनी(मध्यवर्ती),मागधी(पूर्वीय),अर्धमागधी(मध्यपूर्वीय),महाराष्ट्री(दक्षिणी),व्राचड-पैशाची(पश्चिमोत्तरी)।
* अपभ्रंश एवं उनसे उत्पन्न आधुनिक हिन्दी भाषाएं-
•शौरसेनी-पश्चिम हिन्दी,राजस्थानी,पहाड़ी
•मागधी- बिहारी
•अर्धमागधी-पूर्वी हिन्दी।